22 Apr 2012

'टीका लगाना था इसलिए नहीं गई खेत"


Article contributed by Mr. Pankaj Shukla, City Bureau Head, Navdunia, Bhopal, Madhya Pradesh

ग्रामीणों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव 
बालाघाट। मगरदर्रा की आँगनवाड़ी में अपनी तीन माह की बेटी को टीका लगवाने लाई कौशल्या अनुसूचित जाति वर्ग है। गरीब परिवार की बहू कौशल्या कमाई के लिए खेत पर काम करने जाती है। इनदिनों ध्ाान की कटाई का काम चल रहा है करीब सौ रूपए रोज कमाने वाली कौशल्या अपने टोले की एक और महिला के साथ टीका लगवाने आई। उनसे जब पूछा गया कि काम पर क्यों नहीं गईं तो वे कहती हैं कि बच्ची को टीका लगवाना ज्यादा जरूरी है। टीका लगवाना जरूरी है यह किसने कहाँ, पूछने पर वे आँगनवाड़ी सहायिका की ओर इशारा कर देती हैं।
केवल कौशल्या ही क्यों, रोशन पंचायत की समनापुर आँगनवाड़ी में मिली सितकूर टोला की उमा भी कहती है कि उसे आँगनवाड़ी कार्यकर्ता बुलाने आई थी और वह अपने टोले की एक गर्भवती महिला के साथ बच्ची को टीका लगवाने आई है। टीका क्यों जरूरी है? जवाब मिला-बच्ची बीमार नहीं होगी। टीका लगाने के बाद भी तो वह उदास और बीमार हो जाती है, पूछने पर उमा कहती है वो तो दो दिन में ठीक भी हो जाएगी। यह जवाब सुखद आश्चर्य से भर देता है। यह जवाब उस जिले कर अनपढ़ महिलाओं के हैं जहाँ नक्सली प्रशासन के लिए चुनौती बने हुए हैं। महिलाएँ सौ रूपए का घाटा सह कर बच्चों को टीका लगवाने लाती हैं। प्रशासन को तो केवल उन तक सूचना पहुँचाना पड़ती है कि किस दिन टीका लगेगा। 
एएनएम सुनीता मैथ्यू बताती है कि ग्रामीण ज्यादा सवाल नहीं करते। उन्हें बुला लिया जाता है तो वे जाते हैं। लालबर्रा की एएनएम उर्मिला पटले कहती हैं कि हम लोगों को पहले ही बता देते हैं कि टीका लगाने के बाद बच्चे को बुखार सकता है। बच्चा सुस्त होता है तो इसका मतलब है कि दवाई असर कर रही है। अगर ज्यादा बुखार जाए तो तुरंत डॉक्टर को दिखाना चाहिए। स्वास्थ्य कार्यकर्ता केके यादव कहतेे हैं कि बच्चा बीमार होता है तो लोग लेकर तुरंत जाते हैं। कुपोषण पर वे जिला मुख्यालय में पोषण पुनर्वास केन्द्र (एनआरसी) में भी भर्ती करते हैं। श्री यादव का कहा एनआरसी में भ्रमण के दौरान सच लगा। यहाँ 19 बच्चों को पोषण के लिए भर्ती करवाया गया था। ग्रामीणों की जागरूकता ही परिणाम था कि तुमड़ीटोला की आँगनवाड़ी में दोपहर तीन बजे तक लक्ष्य के सभी बच्चों को टीके लग चुके थे। केवल एक गर्भवती महिला का आना शेष था और सभी उसका इंतजार कर रहे थे। नहीं आई तो? इस पर आँगनवाड़ी सहायिका ने कहा कि वह तीसरी बार बुलाने जाएगी। जब कोई इतना पीछे पड़ जाए तो टीका लगवाने आना तो पड़ेगा। 
मगरदर्रा के सरपंच श्यामसिंह चौहान कहते हैं कि बालाघाट मंे लोग जागरूक हैं। वे अपनी बच्चियों को कम से कम आठवीं तक तो पढ़ाते ही हैं। कई लोग आगे पढ़ने के लिए बेटियों को बाहर भी भेजते हैं। इस बार गाँव में दसवीं तक स्कूल खुलवाने की कोशिश हो रही है ताकि सभी बच्चियाँ दसवीं तक पढ़ सकें। टीकाकरण के लिए पंचायत कुछ करती हैं, पूछने पर वे कहते हैं कि जरूरत पड़ने पर हम जोर दे कर ग्रामीण से टीके लगवाने का कहते हैं। वैसे वे मानते हैं कि जननी सुरक्षा योजना के कारण लोगों में संस्थागत प्रसव का रूझान बढ़ा और खाना मिलने के कारण लोग बच्चों को आँगनवाड़ी में भेजते हैं। भेजेंगे तो खिलाएँगे कहाँ से? यहाँ जागरूकता का एक और उदाहरण देखने को मिला। ग्रामीण अपने देशी इलाज पर भरोसा करते हैं तो अस्पताल जाने से भी परहेज नहीं करते। वे ओझा के पास भी जाते हैं और इलाज करवाने डॉक्टर के पास भी आते हैं। वे दोनों की बात मानते हैं। उनका उद्देश्य बच्चे का ठीक होना है। 
एएनएम ममता सर्राटे कहती हैं कि जिले में आशा कार्यकर्ताओं की कमी है। छत्तीसगढ़ से लगे हिस्से में लोगों की भाषा समझने में दिक्कत होती है। अगर इन क्षेत्रों में भी आशा कार्यकर्ताओं की भर्ती हो जाए तो टीकाकरण की दर और बढ़ सकती है। वे सुझाव देती है कि ग्रामीण टीवी कार्यक्रमों से प्रभावित होते हैं तो क्यों कोई विज्ञापन बना कर टोलो में दिखाया जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग जागरूक हों। आशा कार्यकर्ता सुरसता सलीम और चन्द्रप्रभा कहती हैं कि उनकी माली हालत ठीक नहीं है। एक संस्थागत प्रसव पर 150 रूपए मिलते हैं। इसलिए वे हमेशा खोज में रहती हैं कि गर्भवती महिला की जानकारी उन्हें ही मिले। बाद में वे टीके लगवाने का काम भी करती हैं। हालांकि कई बार इन्हें पैसा मिलने में वक्त लग जाता है लेकिन वे ये काम नहीं छोड़ती। वे टोलों में होने वाली शादियों और काम के लिए यहाँ से जाने वाले लोगों का हिसाब भी रखती है ताकि हर शुभ सूचना उनके पास रहे। 
सीएमओ डॉ एसएल साहू कहते हैं कि दिक्कतें यहाँ भी हैं। कई लोग काम नहीं करते। समय पर नहीं आते लेकिन निगरानी तंत्र को मजबूत बना कर रखा गया है। जो नहीं है उसका काम कोई और संभाल लेता है। समय-समय पर महिला एवं बाल विकास विभाग तथा स्वास्थ्य विभाग की संयुक्त बैठक होती है। अत: दोनों विभागों में समन्वय की समस्या नहीं होती। जिले में चिकित्सकों की कमी है लेकिन महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता पर्याप्त है। 2015 आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं के साथ 1144 आशा मिल कर बढ़िया नेटवर्क बना लेती है। ग्रामीणों और मैदानी अमले की यही जागरूकता बालाघाट की ताकत है

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