8 Oct 2011

आशाओं का संगीत जारी है


आशाओं का संगीत जारी है - शेफाली चतुर्वेदी

शेफाली चतुर्वेदी अनेक विधाओं में सक्रिय पत्रकार हैं। उनकी दृष्टि खासतौर से मानवीय प्रश्नों पर जाती है। जीवन के सकारात्मक पक्ष और उसके लिए संघर्ष करने वालों से जुड़े संवाद लिखने में उन्हें आनन्द आता है। यहाँ पढ़े गुजरात में सक्रिय आशाओं पर उनकी एक रपट।






अब तक सुना था कि ‘ममता’ और ‘आशा’ को सिर्फ महसूस किया जा सकता है।अब, तीन दिन के अपने गुजरात प्रवास के बाद मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि ‘ममता’ को देखा और ‘आशा’ को सुना भी जा सकता है।गुजरात के आदिवासी बहुल पर औद्योगिक ज़िले वल्साड में धर्मपुरा ब्लाक में ‘मान’ नदी के मुहाने पर बसा है गांव ‘शेरीमल’ ।करीब 3000 की आबादी वाला यह गाँव आज गुजरात के ही बाकी 26 ज़िलो के सभी गाँवों का प्रेरणास्रोत है।यह कहना मुश्किल है कि यहाँ ‘आशाओं’ का संगीत ममता का सृजन कर रहा है या ‘ममता’ की प्रेरणा से ‘आशाओं’ का संगीत उत्पन्न हो रहा है।



‘शेरीमल’ हमारी आपकी तरह ग्रीटिंग कार्ड कंपनियों की कृपा से साल में एक दिन ‘मातृ दिवस’ मनाने की बजाय, हर महीने में एक दिन ‘ममता दिवस’ मनाता है।‘शेरीमल’ को एक नहीं पांच-पांच आशाओं का सहारा है।इन ‘आशाओं’ के सहारे ‘शेरीमल’ स्वस्थ्य भी है और सचेत भी।

नीता, मनीषा,उषा,स्नेहल और कल्पना ये वो पाँच आशाएं हैं जो ‘शेरीमल’ में रहने वाली धात्री माताओं से लेकर बुज़ुर्गों तक के स्वास्थ्य की कड़ी निगरानी रखे हुए हैं।दरअसल,राष्ट्रीय स्वास्थ्य एंव पोषण आहार कार्यक्रम के तहत गाँव में तैनात महिला स्वास्थ्यकर्मियों को ‘आशा’ का संबोधन दिया गया है।आदिवासी इलाकों में प्रत्येक 500 की आबादी पर एक ‘आशा’ की नियुक्ति का प्रावधान है।वलसाड ज़िले के 629 गांवों में ये नामित और नियुक्त आशाएं ‘ममता’ का सृजन कर रही हैं और इस सृजन की शुरुआत ‘शेरीमल’ से ही हुइ है।राज्य सरकार और यूनिसेफ के संयुक्त प्रयासों का यह ‘ममता अभियान‘ दरअसल एक प्रयोग के तौर पर ‘शेरीमल’ में सन 2006 में शुरू किया गया और फिर धीरे-धीरे ये वलसाड ज़िले के बाकी के गाँवों में भी फैलता गया।एक तरह से, ये अभियान ग्रामीण शिशु स्वास्थ्य और पोषण संबन्धी सभी सरकारी योजनाओं और यूनिसेफ की अवधारणाओं के बेहतरीन समन्वय का नतीजा है।

वलसाड ज़िले के मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी , डा.अजय संघवी की मानें तो ज़िले में चार साल पहले तक लगभग 60 प्रतीशत महिलाएं घर में ही प्रसव के कारण अकाल मृत्यु का शिकार होती थीं तो वहीं 45 प्रतिशत बच्चे भी कुपोषित ही जन्मते थे।यह अजीब था कि आर्थिक रुप से सम्पन्न इस ज़िले में स्वंय-सहायता समूहों की बदौलत महिलाएं भी आत्मनिर्भर तो थी,पर न वो खुद और न ही उनके बच्चे स्वस्थ व पर्याप्त पोषित थे।

तब,सन 2006 में यूनिसेफ द्वारा ‘ममता अभियान’ का प्रस्ताव गुजरात सरकार के समक्ष रखा गया।राज्य सरकार अपने राज्य की बढ़ी हुइ शिशु मृत्यु दर के चलते चिंतित थी और इसे कम करने के लिए यूनिसेफ के साथ खड़े होने को तैयार भी।‘वलसाड’ ज़िले को पायलट प्रोजेक्ट के लिए चुना गया क्योंकि यह आदिवासी बहुल था और प्रसव के लिए हस्पताल पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या यहां बेहद कम थी।ज़िले के 629 गाँवों की ‘आशाएं’ एक जुट हुईं।प्राथमिक चिकित्सा, प्रसव उपरान्त देखभाल,प्राथमिक स्वास्थय परीक्षण-प्रशिक्षण ज़िला स्वास्थय अधिकारी और यूनिसेफ की मदद से उन्हें दिलाया गया।‘ममता अभियान’ की सफलता सुनिश्चित करने के लिए जहाँ यूनिसेफ ने 6 माह के लिए अपना स्वास्थ्य प्रवक्ता गाँवों में नियुक्त किया वही, महिलाओं को उनके स्वास्थ्य के प्रति सचेत करने के लिए स्थानीय वसुधरा डेयरी की प्रभावशाली महिलाओं को भी इससे जोड़ दिया गया।

धीरे-धीरे ‘ममता अभियान’ से राज्य की चिरंजीवी,बालसखा,बालभोग जैसी योजनाएं भी जुड़ गईं।यूनिसेफ के स्वास्थ्य व आहार विशेषज्ञ डॉ.नारायण गाँवकर के शब्दों में “हम चाहते थे कि ‘कुँआ’ प्यासे तक न पहुँचे,बल्कि ‘प्यासा’ कुँआ तक आए। लोगों की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं और योजनाओं के प्रती आस्था जागृत हो, ज़िले में पोषण-आहार का स्तर सुधरे”।निश्चय ही यह प्रबल इच्छाशक्ति के चलते ही संभव हुआ।

‘ममता अभियान’ का पूरा खाँचा वैज्ञानिक तौर पर तैयार किया गया।‘नियत दिन’,’नियत समय’ और ‘नियत स्थान’ के फार्मूले पर काम करते हुए हर गाँव की प्रत्येक आंगनवाड़ी में महिने में एक ‘सोमवार’ को सुबह 10 से शाम 5 बजे तक ‘ममता दिवस’ मनाने की बात तय हुई। साथ ही साथ ‘ममता मुलाकात’,’ममता संदर्भ’ और ‘ममता नोंध’ की आवधारणा भी अभियान के अंगो के रुप में अस्तित्व में आई।‘ममता दिवस’ पर जहाँ आँगनवाड़ी में एक ही छत के नीचे टीकाकरण,शिशू जाँच,प्रसव-परीक्षण और बच्चे का विकास परीक्षण किया जाता है वहीं ‘ममता मुलाकात’ के तहत महीने में दो दिन दवा वितरण और ‘ममता संदर्भ’ में शिशु व स्त्री रोग विशेषज्ञ न सिर्फ परामर्श के लिए गाँव में उपलब्ध रहते है बल्कि इलाज भी मुहैया कराते है।

पूरे माह ‘आशाएं’ हर एक घर के दरवाज़े पर दस्तक देकर प्रसूताओं और माताओं को इस ‘ममता दिवस’ में भागीदारी के लिए आमंत्रित करती हैं।रुढ़िवादि विचारधाराओं के विरुद्ध जाकर हस्पतालों में प्रसव के लिए प्रसूता और उसके परिवाजनों को न सिर्फ प्रेरित करती हैं बल्कि सरकार की 108 ‘एम्बूलेंस’ योजना का उपयोग कर उन्हें प्रसव के लिए हस्पताल तक पहुंचाती भी है।‘ममता अभियान’ की सफलता सुनिश्चित करने में सरकारी पहल भी काबिले तारिफ है,न सिर्फ इन ‘आशाओं’ को परिवार नियोजन और हस्पतालों में प्रसव कराने पर इनामी राशि का प्रावधान है बल्कि दाइयों को घर में प्रसव न करने के लिए भी इनामी राशि का समुचित प्रावधान किया गया है।

सन 2010 के आँकड़े कहते हैं कि अब तक 90.9 % बच्चों का ज़िले में टीकाकरण हो चुका है और हर साल 38 हज़ार से 39 हज़ार तक नए ममता कर्ड बच्चों के नाम पर जारी हो रहे हैं।

कोई आश्चर्य नहीं की ‘ममता अभियान’ का यह पायलट प्रोजेक्ट गुजरात के अन्य ज़िलो के लिए प्रेरणा स्रोत है,हर गाँव ‘शेरीमल’ बनने की राह पर है। गाँव के प्रत्येक दरवाज़े पर गाँव की ही कोई प्रशिक्षित और पढ़ी लिखी मुस्कुराती ‘आशा’ दस्तक दे रही है और ‘ममता दिवस’ का आमंत्रण भी।सरकार और महिलाओं की इच्छाशक्ति के चलते गुजरात का हर गाँव अब ‘शेरीमल’ की तरह हर माह ‘ममता दिवस’ मनाने को तैयार है।‘आशाएं’ रुढ़िवादी बेड़ियां तोड़कर संगीत पैदा कर रही हैं।

उम्मीद की जाए कि जल्द ही ये संगीत बाक़ी राज्यों तक भी पहुंचेगी,अन्य राज्यों में भी महिलाएं ‘आशा’ और ‘ममता’ को सम्मान देंगी ताकि स्वास्थ्य और पोषण के आँकड़े और स्वस्थ्य लगें।

1 comment:

  1. ‘कुँआ’ प्यासे तक न पहुँचे,बल्कि ‘प्यासा’ कुँआ तक आए।
    Its remarkable tip to under stand that actual BCC.


    mayank sharma
    FPA, DFP. Idore

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